सौ और पांच नही एक सौ पांच

सौ और पांच नही एक सौ पांच

पांडवो के चीर शत्रू दुर्योधन को जब गंधर्वो द्वारा बंदी कर लिया , तब धर्मराज युधिष्ठिर अत्यंत व्याकूल हो उठे । उन्होने दुर्योधन को छुडा लाने का भीम से अनुरोध किया । भीम युधिष्ठिर कि आज्ञा का उल्लन्घन करता हुआ बोला – ‘’ मैं और उस पापी को छुडा लाऊं ? जिस अधम के कारण आज हम दर दर के भिखारी और दाने दाने को मोहताज है । जिस पापात्मा ने द्रौपदी का अपमान किया तथा जो हमारे जीवन के लिये शत्रु बना हुआ है , उसी नारकी के प्रती इतनी मोह ममता रखते हूये आपको ग्लानी नही होती धर्मराज ?’’
भीम के रोष भरे उत्तर से धर्मराज चुप हो गये । किंतु उनकी आंतरीक वेदना नेत्रों से मुह पर अश्रु रुप मे लुढक पडी । अर्जुन ने यह देखा तो लपक कर गांडिव उठाया और जाकर शत्रु को युध्द के लिये ललकार कर तथा उसे पराजित करके दुर्योधन को बंधन से छुडा लिया । तब धर्मराज भीम से युधिष्ठिर ने कहा –
      ‘’ भैया , हम आपस में भले हि मतभेद और शत्रुता रखते है । कौरव सौ और हम पांडव पांच बेशक जुदा – जुदा हैं । हम आपस में लडेंगे – मरेंगे । किंतु किसी दुसरे से सामना करने पर हम सौ या पांच नही हैं , अपितु एक सौ पांच हैं ।  संसार कि दृष्टि मे हम अब भी भाई भाई हैं । हम में से किसी एक का अपमान हमारे समूचे वंश का अपमान है ,

हम जब अतित पर दृष्टिपात करते हैं तो आश्चर्य होता है शत्रुता का भी एक अनुशासन होता है अनुशासन रहित शत्रुता या मित्रता पोले बांस कि तरह होति हैं ।

Comments