The mirror

दर्पण
एक युवा साधु विश्वभ्रमन करके अपने देश वापस लौटा था । उस देश का सम्राट उसका मित्र था ।  इसलिये वह सम्राट से मिलने गया । अर्ध नग्न, फटे वस्त्र । सम्राट गले मिला  । बैठ्ते हि सम्राट ने पूछा ‌- ‘’ सारी दुनिया घुम के आये हो , मेरे लिये कुछ लाये हो ? ‘’ उसने कहाँ ‘’ मुझे मालूम था , तुम निश्चित हि कुछ मांगोगे । मै तुम्हारे लिये विशेष चीज़ लाया हूँ । ‘’
सम्राट ने चारो और देखा, साधु के पास तो कुछ मालुम  नही था , हाथ खाली है , झोला भी साथ नही है । सम्राट ने पूछा  ‘’ क्या लेकर आये हो ? ‘’ साधु ने कहा – मैंने बहुत खोजा , बडे - बडे बाजारो में गया ,  बडी – बडी राजधानीयो मे गया , सोचा ऐसी चीज़ ले लु  जो तुम्हारे पास ना हो । ‘’ एक चीज़ मै ले आया हूँ । ‘’
सम्राट खडा हो गया – ‘’ ऐसी चीज़ लाये हो जो मेरे पास नही है , मेरे महल में नही है । देखे , जल्दी निकालो  मेरी उत्सुकता को मत बढाओ । ‘’ उस साधु ने जेब में हाथ डाला , फटे कुर्ते में से एक दर्पन निकालकर सम्राट को दे दिया।
सम्राट ने कहा – ‘’ पागल  हो गये हो , मेरे महल में बडे बडे दर्पन हैं ।‘’ साधू ने कहा – यह दर्पन साधारण नही है । इसमें आपको मात्र आपका असली रुप देखने को मिलेगा ।‘’ सम्राट ने दर्पण में जैसे ही झांका , अपने आप को नग्न पाया । अपना असली रुप पाया । दर्पण के पीछे लिखा था , संसार में कुछ भी एकत्र कर लो , अंत मे तुम जैसे आये हो वैसे ही जाओगे । यह नग्न रुप  ही तुम्हारा है , यही जिवन कि सच्चाई है।
सम्राट कि आंखो के सामने से भ्रम का पडदा  गिर गया ।


हम भी अपने अज्ञान को समझे , उसे ढकने का प्रयास न करे । उधार ज्ञान से अपने अज्ञान को भुलाये न । उधार ज्ञान को दोहरा – दोहरा कर ज्ञान बनाने कि चेष्टा न करे । हम वही देखते है , जो हमें बाहर कि आंखो से दिखाई पडता है । हम उसे नही देखते जो हमें देख रहा है – और इस देखने के लिये भीतर कि आंखो से देखना होगा ।

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