अहंकार का अंत
विद्वान चीरिय को बौध्द
धर्म का प्रचार करने के लिये देश देशांतरो
मे भेजा गया । जहा उनका स्वागत सत्कार हुआ। चीरिय का अहंकार इतने भर से बहुत बढ
गया और ये अपने को असाधारन समझने लगे।
लौट कर वे जैतवन आये। उन
दिनो अनाथ पिण्डक वहाँ कि व्यवस्था संभलते थे। चीरिय को एक दिन तो विश्राम करने
दिया गया। दुसरे दिन उन्हे लकडी काट्ने लिये कुल्हाडी थमा दी गई । यह उन्हे बहुत
बुरा लगा । इतने बडे विद्वान को इतना छोटा काम ?
उन्होने लकडी काट्ने से
इंकार कर दिया । अनाथ पिण्डक ने कहा – तब आप आश्रम मे नही रह सकेंगे । आप सीधे
तथागत के पास श्रावस्ती जाइये । अनुशासन न पालने का दुसरा विकल्प यही था की वहा से
विदाई ले लेना।
चीरिय श्रावस्ती पहुंचे।
उन्हे तथागत से मिलने कि जल्दी थी। पर वे आश्रम मे नही थे । भिक्षा के लिये गये थे
। उनसे कुछ करते न बन पडा । वहा चल पडे जहा तथागत भिक्षा के लिये गये थे । उन्होने
देखा तथागत ने एक झोले मे भिक्षा का अन्न समेट लिया और चलते चलते रास्ते मे पडे हुए
उपलो को समेटते चल रहे थे । एक कंधे पर आहार और दूसरे पर ईंधन लदा हुआ था ।
चीरिय ने उनकी श्रमशीलता और
निरहंकारता को देखा तो पाणी पाणी हो गये । वे मन हि मन यह निश्चय करके लौटे तथागत
का सच्चा अनुयायि बनूंगा। अहमन्यता को पास न भटकने दूंगा ।
अहंकार से बडा कोई शत्रु
नही । जो भीतर से खाली होते है वे बाहर अहंकार से भर जाते है। अहंकार का अंत होने
पर स्वभाव की यात्रा शुरु होति है ।
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