अनुग्रहण
बुध्द अपने शिष्यों को
समाधी मरण कि शिक्षा देते थे । मृत्यु का होश पूर्वक वरन करना यह अंतिम साधना थी ।
बुध्द ने समाधी कि इच्छा
रखने वाले एक शिष्य से पूछा – ‘’ तू समाधी धारण
करेगा ? शिष्य ने अति उल्हास में आकर कहा – हाँ । बुध्द ने फिर पूछा - किस स्थान
पर जाकर समाधी लेना चाहोगे ? । शिष्य ने कहा सूखा प्रांत में
।
बुध्द ने कहा – वहा के लोग आतातायि है । बडे निष्ठूर लोग है
वे बहुत असभ्य हैं वे तुझे गाली देंगे ।
शिष्य ने कहा - ‘’ मैं उन्हे धन्यवाद दूंगा कि गाली देते हैं
, मारते नही है । ‘’
बुध्द ने कहा – ‘’ यदि उन्होने मारा तो ? ‘’
शिष्य ने कहा – ‘’उन्हे धन्यवाद दूंगा कि वो मारते है , मार
नही डालते ।‘’
बुध्द ने कहा – ‘’यदि मार डालेंगे तो ? ‘’
तो शिष्य ने उत्तर दिया – ‘’ भन्ते उनका अनुग हीत
होऊंगा कि इस शरीर को समाप्त किया उन्होने जिसमे कुछ बुराई हो सकती थी,फिर बचेगी आत्मा जो शुद्ध है चैतन्य है।‘’
‘’तु
जा।‘’ तु जिस जगह भी जायेगा प्रसन्न्ता से समाधी को उपलब्ध
होगा – तु मुक्ती को प्राप्त कर सकेगा ।‘’ बुद्ध
ने सुखाप्रान्त जाने की आज्ञा दे दी।
जब चित्त
भितर की धन्यता से भर जाता है तो समष्टि के प्रति अनुग्रह और धन्यवाद का भाव चित्त
को आवश्त कर लेता है । मुक्ति के मार्ग की सारी बाधये विलीन हो जाती है। साधक के
मार्ग में कोई अवरोध शेष नही रह जाते है । परम मुक्ति की दिशा में ऐसा अनुग्रह का
भाव ही अहोभाव है।
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