जातिय बैर
बैर कषायों को बांधता
और भव – भव तक अधोगती में भटकाता है । आश्चर्य यह है की अपनो में बैर कि प्रवृत्ती
अधिक पाई जाती है । यह कथा बहुत प्रीतिकर एवं रोचक है ।
सुना है एक कुत्ता मथुरा
से दिल्ली आया । दिल्ली के कुत्तों ने उससे पूछा - ‘’ मथुरा से दिल्ली का रस्ता आसान नही है । महिनों में आ पाये होंगे
।‘’ तो मथुरा से आने वाले कुत्ते ने कहा – ‘’ मैंने अपनी
यात्रा सात दिनों में पूरि कर ली । और वह भी अपने जातिय कुत्तो के कारण । उन कुत्तो
ने कहा – वह कैसे ?’
वह बोला – ‘’जैसे ही मैं मथुरा से चला
तो रास्ते में चौमा के कुत्तो ने मुझे देख्ते हि मेरी टांग पकडकर ऐसी आवभगत की कि जान
छुडाकर भागा और फिर आगे छातई , फिरदौसी के जात भाई कहाँ छोड्ते
। उनसे बचने के लिये जान कि बाजी लगाकर भागा । और यही दशा पलवल , बल्लभगढ , फरिदाबाद , निजामुद्दीन
औखला वगेरह के कुत्तों ने अपनी जातीय दुश्मनी से मेरा सत्कार किया । पूरे रास्ते कही
आराम न कर सका । सांस न लेने दिया । बस यही समझों कि मैंने जातिय स्वागत के इस तौर
तरिके से एक माह कि यात्रा सात दिनों में पूरी कर ली । उनके सम्मान में प्राण बच गये
। यह कम नही है । ‘’
दिल्ली के कुत्ते शर्म से गर्दन नीची करके
रह गये । और सोचने लगे हमारी कौम , कैसी पतित है जो अपने ही जाती से बैर रखती है
और दुसरों के तलवे चाटती है ।
यह कथा मनुष्य से मनुष्य कि ईर्षा का दर्पन
प्रस्तुत करती है ।
किसी ने कहा है –
‘’ दिप से दिप जले तो उजाला
होता है ,
आदमी से आद्मी जले तो वक्त
भी काला होता है’’
Comments
Post a Comment