सौ और पांच नही एक सौ पांच
भीम के रोष भरे उत्तर से धर्मराज चुप हो गये । किंतु उनकी आंतरीक
वेदना नेत्रों से मुह पर अश्रु रुप मे लुढक पडी । अर्जुन ने यह देखा तो लपक कर गांडिव
उठाया और जाकर शत्रु को युध्द के लिये ललकार कर तथा उसे पराजित करके दुर्योधन को बंधन
से छुडा लिया । तब धर्मराज भीम से युधिष्ठिर ने कहा –
‘’ भैया , हम आपस में भले
हि मतभेद और शत्रुता रखते है । कौरव सौ और हम पांडव पांच बेशक जुदा – जुदा हैं । हम
आपस में लडेंगे – मरेंगे । किंतु किसी दुसरे से सामना करने पर हम सौ या पांच नही हैं
, अपितु एक सौ पांच हैं ।
संसार कि दृष्टि मे हम अब भी भाई भाई हैं । हम में से किसी एक का अपमान हमारे
समूचे वंश का अपमान है ,।
हम जब अतित पर दृष्टिपात करते हैं तो आश्चर्य होता है शत्रुता
का भी एक अनुशासन होता है अनुशासन रहित शत्रुता या मित्रता पोले बांस कि तरह होति हैं
।
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