प्रतिशोध
एक बार एक सिंह का बच्चा खेलते खेलते अपनी
गुफा से बहुत दुर निकल गया । उस अनजाने भू-भाग में , काफि ऊंची घास थी । बच्चेने
लाख कोशिश कि किंतु गुफा की ओर लौटने का रास्ता उसे न मिल सका । उस ऊंची घास में वह
एक्दम खो-सा गया ।
संयोग वश उसी भू-भाग में जब हाथिंयो का एक
झुंड विहार करने आया , तो झुंड के एक हाथी का पैर घास में दबे उस सिंह
शावक पर पडा और परीणाम स्वरुप बच्चे कि जीवन लिला वही समाप्त हो गयी ।
कुछ देर बाद उसी मार्ग से गुजरने वाले एक दुसरे
सिंह कि दृष्टि उस कुचले हुऐ सिंह शावक पर पडी । वह सीधा बच्चे के बाप के पास जा पंहूचा
और बोला तुम्हरे बच्चे को किसी ने मार डाला है ।
सूचना पाकर बच्चे का बाप आग बबूला हो गया ।
आंखो से अंगारे बरसता हुआ पूछने लगा – ‘’ बोलो किसने मारा है मेरे प्यारे बच्चे को ?
मै अभी जाकर उससे बदला लूंगा ।‘’
एक हाथी ने ।
किसने ? हाथी ने ?
हाँ , एक मदांध हाथी ने ही पैरोतले
कुचल दिया ।
बच्चे का बाप कुछ
देर तक विचार मग्न दिख पडा निर्णयात्मक स्वर में बोल पडा – नहीं , नहीं हाथी
कभी किसी सिंह के बच्चे के साथ छेड्छाड नहीं कर सकता ।मैं विश्वासपूर्वक कह सकता हूँ
की , मेरे बच्चे को किसी बकरे ने ही मारा होगा । इतना निच और
गंदा काम किसी बकरे का ही हो सकता है।
और तब उस क्रोधित
सिंह ने एक भीषण गर्जना कि और प्रतिशोध कि भावना से अपनी गुफा से बाहर निकला । पलक
मारते ही उस जगह जा पहूंचा , जहाँ बकरो का एक झुंड चर रहा था । दुसरे हि
क्षण वह बडी क्रुरता के साथ उस झुंड पर टुट पडा और ज्यादा से ज्यादा बकरो कि जान लेकर
अपने प्यारे बच्चे कि हत्या का प्रतिशोध लिया ।
प्रतिशोध
कि मदांधता ऐसी हि भूले करवाती है ।प्रतिशोध विवेक को तिलांजली देकर उन कार्यो कि ओर
रस लेता है जिन कार्योसे नयी भुलो का जन्म होता है । प्रतिशोध नही शोध हि विवेक का
आधार है ।
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